Friday, November 12, 2010

हक प्रकाश haq parkash

हक़ प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश,आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" उर्दू  के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर,  उर्दू  हिन्दी उस जमाने की सत्यार्थ प्रकाश नेट में उपलब्ध है,
लेखक : मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी

हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश


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https://islamhindimen.wordpress.com/2020/07/07/haq-parkash-bajwab-satyarth-prakash-hindi-unicode/

حق پرکاش بجواب ستیارتھ پرکاش
https://archive.org/details/HaqPrakashBajawabSatyarthPrakashurdu

Response “Light of Truth” to Swami Dayananda Saraswati
by Ahmaddiya community
http://responselightoftruth.blogspot.com/2011/06/response-to-swami-dayananda-saraswati.html
Pdf
https://archive.org/details/ResponseLightOfTruth

कल की सत्यार्थ प्रकाश पर लिखी गयी हक़ प्रकाश
आज की सत्यार्थ प्रकाश पढ़ कर लिखी गयी "चौदहवीं का चाँद पर एक दृष्टि"
http://chaudhvin-ka-chand.blogspot.com/2011/06/chaudhvin-ka-chand.html
विषय सूची
  1. प्रकाशक की ओर से।
  2. हक प्रकाश पर एक समीक्षा
  3. कुछ पुस्तक के बारे में
  4. भूमिका
  5. हक प्रकाश ब जवाब सत्यार्थ प्रकाश
  6. कुरआन के बारे में स्वामी जी की राय
  7. आपत्ति कर्ता के मुकाबले में जवाब देने वाले की राय
  8. निष्पक्ष और भले लोगों के लिए यही गवाही काफी है।
 
  1. प्रकाशक की ओर से
सत्य और असत्य की जंग और आपसी कटुता का इतिहास बड़ा ही प्राचीन है बल्कि यह कहना सही होगा कि जब से इस्लाम का जन्म हुआ है उसी समय से इस पर आरोप प्रत्यारोप और तोहमतों का कार्य हो रहा है ।सत्य धर्म की शिक्षाओं को अज्ञानता , टेढी सोच , स्वार्थ , दुर्भावना और दुश्मनी व नफरत की बुनियाद पर लान तान का निशाना बनाया गया ।|नफ्स के गुलामों ने अपनी हठधर्मी के नशे में इस्लाम के तथ्यों को दुनिया के सामने संदिग्ध बना कर प्रस्तुत करने की बार बार नाकाम कोशिशें कीं ।लेकिन अल्लाह के कानून के अनुसार यथा आवश्यक्ता हर युग में ऐसे इस्लाम के बहादुर और सूरमा पैदा होते रहे जिन्होंने अपने ज्ञानात्मक , लेखों और वक्तव्यों की योग्यताओं को काम में लाकर इस्लाम और मुसलमानों पर होने वाली असत्य आपत्तियों का भरपूर जवाब दिया है जिन्होंने हर प्रकार कीसाजिशों को उखाड़ फेंका ।उनकी जबान व कलम से निकले हुए शब्द कुरआन व हदीस से शक्ति ग्रहण करके इस्लाम विरोधियों के विरोध और उनके नास्तिक एवं अधर्मवाद के झोंपड़े पर कड़क दार बिजली बन कर गिरे और उसे जलाकर भस्म कर दिया ।इसी क्रम की एक अहम कड़ी का हिस्सा यह किताब “ हक प्रकाश भी है जो आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती की किताब सत्यार्थ प्रकाश के अध्याय 14 का जवाब है जो जवान व कलम के प्रख्यात मनाजिरे इस्लाम अल्लामा अबुल वफा सनाउल्लाह 3 । अमृतसरी की प्रसिद्ध किताब है । अल्लामा सनाउल्लाह अमृतसरी १५२५ ही इस दौर के लिए बहुत ही शक्तिशाली सत्य की आवाज साबित हुए । जिस समय इस्लाम के विरुद्ध हर ओर से भ्रम एवं संदेहों की तेज आंधियां चल रही थी और नबी करीम सल्ल0 के व्यक्तित्व और आपकी पाक जात को रंगीला रसूल लिखकर दागदार बनाने की कोशिशें की जा रही थी । अब्दुल गफूर की किताब " तकें इस्लाम का सहारा लेकर इस्लाम पर कीचड़ उछालने की नापाक कोशिशें हो रही थीं । ऐसे समय में जरूरत थी एक सतर्क व दृढ जबान व कलम की और ज्ञान एवं उच्च कोटि के विद्वान की जिसके द्वारा नित नए फ़ितनों का सर कुचला जा सके और इस्लाम दुश्मन विचारों एवं दृष्टिकोणों का निवारण हो सके और इस्लाम की सुरक्षा की जा सके । अल्लामा अबुल वफा सनाउल्लाह अमृतसरी अपने दौर के महान मुजाहिद थे | वे इस्लाम दुश्मनों के लिए नंगी तलवार साबित हुए । उन्होंने समय समय पर उठने वाले फित्नों का हर मौके पर ज्ञानात्मक मुकाबला किया । ईसाइयों की आपत्तियों के जवाब , इस्लाम व मसीहियत , तकाबुल सलासा और इसी प्रकार की दूसरी किताबें अल्लामा के जिन्दा कारनामे हैं । आप इस्लाम विरोधियों से दो दो हाथ करने में कभी पीछे नहीं रहे । और इस्लाम विरोधियों से मनाजिरे करके सत्य का बोल बाला किया । | आज फिर इसी प्रकार के फितने सर उठा रहे हैं । इस्लाम दुश्मन तत्वों का इस्लाम के विरुद्ध हमला बड़ी तेजी के साथ शुरू हो गया है । नास्तिकों और आपत्ति करने वालों की ओर से इस्लाम की हकीकी शिक्षा का स्वरूप बिगाड़ने और उसके बारे में प्रोपगंडे और गलत फहमियों को बढ़ावा देने की सारी कार्रवाइयां चल रही है मीडिया व समाचार पत्रों ने इस्लाम के विरुद्ध गलत विचारों व दृष्टिकोणों का प्रचार एवं प्रसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । ऐसे हालात में अल्लामा सनाउल्लाह साहब की तर्क पूर्ण , शाहकार और इल्मी किताबों के प्रकाशन का महत्व बढ़ गया है । यही कारण है कि हमने इस महत्वपूर्ण किताब को हिन्दी भाषा में प्रकाशित करने का कदम उठाया है । | हमारा उद्देश्य यही है कि मुसलमान और गैर मुस्लिम भाई इस | किताब का अध्ययन करके सत्य और असत्य का फर्क जान सके और इस्लाम व पैगम्बरे इस्लाम पर निराधार लगाए गए आरोपों का सतर्क जवाब पढ़ सकें ।
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2. हक प्रकाश पर एक समीक्षा
शैखुल इस्लाम सनाउल्लाह अमृतसरी निस्सन्देह एक हक परस्त विद्वान थे। अल्लाह ने आपको वह सोच एवं ज्ञान प्रदान किया था कि वे एक ही समय में समस्त इस्लाम दुश्मन संगठनों से मुकाबला करते रहे। कादियानियत, ईसाइयत, आर्यसमाजी, सनातन धर्मी, बहाई अर्थात वे सारे तत्व जो इस्लाम को चुनौती देने का साहस करते थे। शैखुल इस्लाम ने सब का सतर्क जवाब दिया। दोस्तों ने ही नहीं स्वयं दुश्मनों ने भी इस बात को स्वीकारा। इस मैदान में कोई उनका मुकाबला नहीं हो सकता। आज भी देखिए तो हैरत होती है कि एक व्यक्ति बिल्कुल अकेले किस तरह ऐसा चौमुखी हमला कर सकता था । उनका समाचार पत्र ''अहले हदीस” अपने समय का महत्वपूर्ण पर्चा था और गैर मुस्लिमों में भी वह उतना ही लोक प्रिय था जितना मुसलमानों में।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू धर्म में सुधार का बीड़ा उठाया। वे हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे न अवतार वाद में विश्वास रखते थे इस प्रकार उन्होंने हिन्दू धर्म को उसके मूल की ओर लौटाने का प्रयत्न किया ताकि वह करोड़ों देवी देवताओं के अकीदे से निकल कर एकेश्वरवाद की ओर आए जो सारे धर्मों की असल बुनियाद है। स्वामी जी ने एक पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश लिखी जो आर्य समाज की बाइबिल बन गयी। उन्होंने इस किताब में हिन्दू धर्म के उसूल, रीति रिवाज और अकीदों पर बहस की और हिन्दू समाज में फैले हुए गलत अकीदों का सुधार करने का यत्न किया। साफ़ सी बात है कि इससे किसी को मतभेद नहीं हो सकता था बल्कि यह एक बड़ी अच्छी कोशिश थी लेकिन इसी किताब में उन्होंने अन्य धर्मों पर भी आपत्ति व्यक्त की और उनको बुरा और गलत बताने की कोशिश की।
सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय में उन्होंने इस्लाम पर तीर चलाए और कुरआनी शिक्षा को निशाना बनाया। चूंकि स्वामी जी अरबी जानते नहीं थे इस लिए व्याकरण संबंधी नियम एवं इन भाषाओं, मुहावरों और भाषा से अनभिज्ञता के कारण शब्दों का सही अर्थ व भाव समझने से विवश रहे इसके बावजूद उन्होंने इस्लाम पर आपत्तियां व्यक्त की और उनको अपनी पुस्तक में शामिल किया। इस प्रकार अपनी कौम को उन्होंने अपने ज्ञान एवं जानकारी से प्रभावित करने की कोशिश की लेकिन मुसलमानों को उनकी इस कार्रवाई से तकलीफ पहुंची। विरोध एवं रोष भी व्यक्त किया। पहले यह पुस्तक देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई थी इसलिए गैर हिन्दी हलकों में यह परिचित नहीं हो पायी, हा शैखुल इस्लाम जैसे विद्वान ने जो उस दौर में भी देवनागरी से भली प्रकार परिचित थे इसका नोटिस लिया और इसका जवाब लिखने का इरादा किया। इसी बीच स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश का उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित कर दिया और किताब सारे हलकों में पहुंच गयी और फिर हर ओर से इस पर आपत्तियां होने लगीं।
शैखुल इस्लाम साहब अल्लामा अमृतसरी "हक प्रकाश" की भूमिका में लिखते है : - जब तक किताब देवनागरी में थी इसकी आम शोहरत न थी हमने देवनागरी में भी इसका अध्ययन किया था उसी समय से हमारा विचार था कि जितना कुरआन से इसका हिस्सा संबंधित है उसका जवाब उर्दू में दिया जाए। उस समय इसका जवाब देने में यह परेशानी थी कि देवनागरी से उर्दू में अनुवाद भी हमें ही करना पड़ता। अल्लाह की शान कि यह काम चूंकि उसे हम से ही कराना मन्जूर था अतः इसका सबब भी अल्लाह ने आर्यो ही को बनाया कि उन्होंने इस किताब का अनुवाद देश की लोकप्रिय और जन सामान्य भाषा उर्दू में करके हजारों प्रतियां प्रकाशित कर डालीं। इस बात को कहना कोई जरूरी नहीं कि स्वामी के सवालात आम तौर पर गलत फहमियों पर टिके हुए हैं इसलिए कि सत्य को स्वीकार करने से बहुधा गलत फहमी ही रोक बनती है । ( पृष्ट 4-5 )
शैखुल इस्लाम अमृतसरी ने किताब में मुहक्किक और मुदकिकक के शीर्षक लगा कर स्वामी जी की आपत्तियों को प्रस्तुत। करके उनका सतर्क जवाब दिया है और साबित किया है कि स्वामी जी की आपत्तियां अरबी भाषा के उसूल व नियम से उनकी अनभिज्ञता और गलत फहमी की वजह से सामने आयी हैं इसी के साथ शैखुल इस्लाम ने हिन्दुओं की किताब से हवाले नकल करके अपनी बात स्पष्ट कर दी है, इससे शैखुल इस्लाम की दूरदर्शिता और सूझ बूझ और अन्य धर्मों की धार्मिक पुस्तकों से उनकी गहरी जानकारी का अन्दाजा होता है।
हक प्रकाश के प्रकाशन से मुसलमानों में वह बेचैनी और परेशानी दूर हो गयी जो स्वामी के निराधार और बेतुकी आपत्तियों के कारण पैदा हो गयी थी क्योंकि यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वामी जी की आपत्तियां उनकी अज्ञानता और जानकारी न होने का नतीजा हैं। आर्यों की ओर से शैखुल इस्लाम की किताब के अनेक जवाब लिखे गये जैसा कि भूमिका से स्पष्ट है। दयानन्द तमर भास्कर, सत्यार्थ भास्कर, दयानन्द सभा व प्रकाश आदि।
लेकिन असल बात यह है कि वे शैखुल इस्लाम की आपत्तियों का सतर्क जवाब नहीं दे सके यह इसलिए कि शैखुल इस्लाम की पहुंच उनकी धार्मिक पुस्तकों तक थी वे संस्कृत और देव नागरी भाषाएं भली प्रकार जानते थे और चूंकि सारे धर्मों के धार्मिक ग्रंथों पर गहरी नजर थी इसलिए ऐसे-ऐसे नुक्ते प्रस्तुत करते थे कि उनका जवाब आसान नहीं होता था। इस प्रकार शैखुल इस्लाम अमृतसरी ने इस्लाम के बचाव में बह मूल्य साहित्य उपलब्ध किया और उस दौर में जो मुनाजिरों का दौर था इस साहित्य का बड़ा महत्व था। आज के बदले हुए हालात में जबकि बहु संख्यक के राजनीतिक प्रभाव व सत्ता के कारण दूसरे धर्मों के लोग (अल्प संख्यक) बचाव करने की स्थिति में आ गए हैं। इस लिट्रेचर के महत्व व कुद्र और अधिक बढ़ गयी है ताकि मुस्लिम समुदाय की नयी नस्ल जो तेजी से प्रभावित हो जाने का शिकार रही है हकीकत से अवगत हो सके और किसी प्रकार के प्रभाव में आने के वातावरण से बाहर आए।
3. कुछ पुस्तक के बारे में
1 - हक प्रकाश बाजवाब सत्यार्थ प्रकाश, एकेडमी की ओर से प्रस्तुत की जाने वाली आठवीं पुस्तक है। हक प्रकाश मौलाना मरहूम की एक शाहकार किताब कहलायी जाने की हकदार है और यूं भी उनकी किताबों में इस को एक प्रमुख और महत्वपूर्ण दर्जा हासिल है। चूंकि मौलाना मरहूम को अल्लाह ने इस्लाम के विरोधियों से ज्ञानात्मक और लेखों व वक्तव्यों की सतह पर मुकाबला करने और तब्लीग के लिए भेजा था इसलिए मुनाज़रा से असाधारण दिलचस्पी एक स्वभाविक बात थी, यह किताब हक प्रकाश जो कि स्वामी दयानन्द सरस्वती संस्थापक आर्य समाज की किताब सत्यार्थ प्रकाश के अध्याय 14 का मुसलमानों की ओर से सतर्क जवाब है। किताब के अध्ययन से आर्य समाज और हिन्दू धर्म से संबंधित पर्याप्त जानकारी हासिल की जा सकती हैं ।
2 - कुछ लोगों को आज के दौर में इस प्रकार के विषय संबंधी चीजें पसन्द नहीं हैं बल्कि इस्लाम का मात्र परिचय या सकारात्मक अन्दाज के लिट्रेचर के प्रकाशन के पक्ष में हैं यद्यपि गहरी नजर से देखा जाए तो दोनों प्रकार के लिट्रेचर की सदैव जरूरत रही है और रहेगी। इसका अनुमान उन लोगों को हो सकता है जो गैर मुस्लिमों में इस्लाम के प्रचार का काम करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आज मुनाजरों का दौर नहीं है लेकिन इस्लाम के प्रचार के बारे में हक प्रकाश, मुकद्दस रसूल, ईसाइयों को जवाब, तर्के इस्लाम, तकाबुल सलासा, इस्लाम और मसीहियत और तफसीर सनाई जैसी किताबों से गैर मुस्लिमों के भ्रम एवं सन्देहों को दूर करने के लिए बहुत सा मैटर उपलब्ध हो जाता है कि आज के दौर की लिखी हुई सैकड़ों किताबों में ऐसा मैटर नहीं मिल सकेगा, सनाई लिट्रेचर का अध्ययन गैर मुस्लिमों में तब्लीग करने वाले लोगों के लिए अत्यन्त जरूरी है।
3 - और वैसे भी आज जबकि सरकारी मदरसों में शिक्षा प्रणाली सैक्यूलर है लेकिन फिर भी पाठयक्रम में बहुसंख्यक समुदाय की सभ्यता एवं संस्कृति, विचारों एवं दृष्टिकोणों की गहरी छाप है जबकि हमारी नयी नस्ल इस्लाम धर्म और इस्लामी सभ्यता एवं संस्कृति से अनभिज्ञ है और इस अनभिज्ञता ने उनको हीन भावना का शिकार बना दिया है अत एवं इस्लाम के विरोधियों को इस कमजोरी के कारण बेजा लाभ उठाने का सुनहरा अवसर जुटा दिया है।
शुद्धि संगठन किसी न किसी रूप में आज भी जीवित है। इस्लाम के खिलाफ लिट्रेचर विशेष रूप से आर्य समाज की ओर से खुल्लम खुल्ला प्रकाशित हो रहा है यहां तक कि आजादी से पूर्व की प्रतिबन्धित पुस्तकें, जाली नामों और पतों के साथ प्रकाशित की जा रही हैं इसका जीवन्त उदाहरण बदनाम जमाना किताब "रंगीला रसूल" है जो हिन्दी भाषा में प्रकाशित करके चोरी छुपे बेची जा रही है और सरकार की सी आई डी या खुफिया विभाग इस पर ध्यान नहीं दे रहा है।
जहां तक सत्यार्थ प्रकाश का संबंध है इसका चौदहवां अध्याय मुसलमानों के लिए सबसे अत्यधिक दिल को चोट पहुंचाने वाला है। इसका अनुमान हक़ प्रकाश में दिए गए मैटर से लगाया जा सकता है। इतने अपमान, तिरस्कार और तुच्छ वाक्य और घटिया शैली दुनिया की किसी किताब की नहीं हो सकती जो कि सत्यार्थ प्रकाश की है। आजादी से पूर्व सिन्ध में इस पर पूरी तरह पाबन्दी लग चुकी थी और उसी दौर में पंजाब में इस प्रकार का आन्दोलन चल रहा था।
आश्चर्य की बात है कि हिन्दुस्तान के मुस्लिम रहनुमा और इस्लाम का दर्द रखने वाली संस्थाएं और स्वयं सरकार का जिम्मेदार स्टाफ़ आज तक क्यों खामोश हैं ? यह उल्लेखनीय और विचारणीय बात है कि इस किताब में न केवल मुसलमानों के विरुद्ध मैटर है बल्कि सिखों और दूसरे हिन्दू समुदायों के अलावा इस किताब के खंडन भाग में ईसाई धर्म का खंडन और अपमानजनक बातों पर आधारित तेरहवां अध्याय भी है क्या ही अच्छा होता कि अल्प संख्यक आयोग इस समस्या पर भी ध्यान दे क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में अल्प संख्यकों के धर्मों के विरुद्ध अध्यायों का अलग-अलग पुस्तिकाओं के रूप में भी विभिन्न भाषाओं में छाप कर गांव देहात और शहरों में बांटा जा रहा है ।
यह भी एक अटल हकीकत है कि देश वासियों को इसी वजह से इस्लाम के बारे में भ्रम पैदा हो रहा है और इस प्रकार का विषैला लिट्रेचर देश की प्रगति एवं निर्माण व उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने का एक स्थाई जरिया बना हुआ है। हिन्दू मुस्लिम एकता के आवाहक महात्मा गांधी ने अपने समाचार पत्र "यंग इन्डिया" में इस पुस्तक को "निराशा" जनक किताब कहा और इसके लेखों पर अपनी "नापसन्दीदगी" व्यक्त की थी ।
4 - सत्यार्थ प्रकाश की शताब्दी ( सौ साला उत्वस ) 22 से 25 मार्च तक दिल्ली के राम लीला ग्राउंड में बड़ी धूम धाम से मनाया गया। देश विदेश से भारी संख्या में आए हुए लोग शरीक हुए। इस अवसर पर इस "हक प्रकाश" पुस्तक का प्रकाशन सराहनीय और एक अच्छा कदम है ।
वस्सलाम,अबु राशिद बिन हाजी मुहम्मद सुलैमान, 10 मार्च 1979 ई०
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4. भूमिका
पहले मुझे देखिये
स्वामी [1] दयानन्द जी ने एक किताब "सत्यार्थ प्रकाश" देवनगरी
में लिखी थी जिसमें सारे प्रचलित धर्मों [2] का खंडन और अपनी मामूली समस्याओं को बयान किया था। किताब के चौदह अध्याय हैं। इनमें से चौदहवें अध्याय में कुरआन पर आपत्ति की है। जब तक यह किताब देवनागरी में थी जन सामान्य की भाषा न होने के कारण प्रसिद्ध न थी। हमने इसका हिन्दी में भी अध्ययन किया था। उसी समय से हमारा विचार था कि जितना कुरआन से इसका भाग संबंधित है उसका जवाब उर्दू में दिया जाए, उस समय इसका जवाब देने में यह परेशानी थी कि नागरी का अनुवाद भी हमें ही करना पड़ता।
अल्लाह की शान चूंकि यह काम अल्लाह को हम से कराना मन्जूर था। इसका ज़रिया भी उसने आर्यों को ही बनाया कि उन्होंने इस किताब का अनुवाद उर्दू में करके हजारों प्रतियां प्रकाशित की । फिर क्या था एक हमारी स्वंय की राय, दूसरे दोस्तों ने भी जो इस नाचीज़ को इस काम के लिए योग्य समझते थे। इसका जवाब देने के लिए जोर डाला जाने लगा अतएव अल्लाह का नाम लेकर मैने इस काम को आरंभ कर दिया और फिर अल्लाह ने इस काम को पूरा भी करा दिया।
इस बात को बताना कुछ जरूरी नहीं कि स्वामी जी के सवाल पूरी तरह गलत फहमी पर आधारित हैं इसलिए कि सत्य को स्वीकार करने से सदैव गलत फहमी ही रोक बना करती है वर्ना सत्य की समझ भली प्रकार मन मस्तिष्क में आ जाए तो फिर किसी सत्य को चाहने वाले के दिल से विरोध नहीं हुआ करता। हां, इस बात का दुख अवश्य है कि इस जवाब से पहले स्वामी जी की तेज जबानी और अल्पज्ञान के मुकाबले हिन्दुओं की शिकायतें सुनकर हम उनको धार्मिक पक्षपात और अकारण की दुश्मनी पर आधारित और अतिश्योक्ति वाला समझा करते थे मगर जब हम पर बीती तो हमें बड़ा भारी दुख हुआ कि हमारी यह पुरानी राय गलत साबित हुई जिससे भविष्य में हम हिन्दुओं की शिकायत को वाजिबी मानने को मजबूर हैं ।
स्वामी जी ने कुरआन शरीफ का उर्दू अनुवाद नागरी में कराकर बिना सोचे समझे आगे पीछे देखे बिना जो कुछ दिल में आया लिख मारा। यद्यपि उन्होंने अनुवाद का नाम नहीं बताया मगर अन्दाजे से मालूम होता है कि जिस अनुवाद पर स्वामी जी ने बुनियाद रखी है । वह शाह रफीउद्दीन साहब का शाब्दिक अनुवाद है जो उर्दू भाषा के कायदे व व्याकरण, मुहावरे व अरबी भाषा के स्पष्ट अर्थ पर आधारित नहीं है। इसके अलावा स्वामी जी इसमें अपनी ईजाद (अविष्कार) से भी बाज़ न रहे अतएव पाठक जगह जगह इसे प्रतीत करेंगे।
स्वामी जी ने सवालों पर नम्बर भी लगाए हैं कुल नम्बर 159 हैं। मगर हम इनके लिए उनकी वकालत में एक नम्बर और ज्यादा करके पूरे 160 कर देंगे। यदि हमारे समाजी दोस्त कहते तो ऐसे नम्बरों की संख्या हम हज़ारों तक उनको पहुंचा देते। काश स्वामी जी बजाए 159 नम्बर के केवल 59 बल्कि इनमें से भी 9 के अंक को उड़ा कर केवल 5 सवाल ही ऐसे करते जिनको विद्वान उचित सवालों का नाम दे सकते।
चलिए जो कुछ स्वामी जी से हुआ वह यही 159 या हमारी वकालत की मदद से 160 नम्बर हैं जिनको हम ज्यों का त्यों उन्हीं के वाक्यों में पूरा पूरा नकल करके जवाब देंगे।
स्वामी जी ने जैसा कि हमारे पाठक देखेंगे यह तरीका रखा है। कि पहले कुरआन शरीफ का शाब्दिक अनुवाद लिखते हैं फिर अपना नाम आपत्ति कर्ता लिखकर उस पर आपत्ति करते हैं । इसी लिए हमने जवाब देते हुए "आपत्ति का जवाब" शीर्षक लगाकर जवाब दिया है।
चूंकि स्वामी के अधिकांश सवाल ऐसे भी हैं जो वैदिक धर्म या आर्य समाज के सम्पूर्ण धर्म के भी विरुद्ध है इसलिए सामान्यता हमने उनकी आपत्तियों का जवाब देकर बाद में भी शोधपूर्ण जवाब दिए हैं।
स्पष्ट रहे कि हमारे हवालों में सत्यार्थ प्रकाश से तात्यर्प प्रमाणिक उर्दू अनुवाद प्रकाशित प्रतिधार्मिक सभा पंजाब है। चूंकि यह अनुवाद अनेक बार छपा है और आर्यों ने किसी विशेष लाभ के लिए प्रथम एडीशन के पृष्ठों की समानता नहीं रखी। की
[[सत्यार्थ प्रकाश 14:73 अब हिन्दी में 3 लाइन में रह गयी ]
इसलिए पाठक गणों की आसानी के लिए अध्याय नम्बर सहित भी लिखेंगे और ऋग्वेद आदि भाष्य भूमिका का केवल भूमिका से तात्पर्य अनुवादक बाबू निहाल सिंह आर्य निवासी कर्नाल हैं अतः जिस सज्जन को हमारे हवालों या वेद के अनुवाद में संदेह हो वह प्रत्यक्ष में हम से जवाबी कार्ड भेजकर मालूम करें हम उनको स्वामी जी की किताब से ही वे हवाले दिखा देंगे। और यह भी स्पष्ट रहे कि हमने इस जवाब में किसी समाजी लेखक को सम्बोध नहीं किया क्योंकि हम जानते हैं कि जितनी इस्लाम से दूरी हुई है इसलिए उनके चेले वही कहें तो उनका दोष नहीं।
पहले एडीशन में यह किताब ईशवरीय किताब के साथ इसलिए लगायी गयी थी कि इसमें आर्यों से वाद विवाद था मगर दूसरे एडीशन से दोस्तों की इच्छा के अनुसार उसको अलग कर दिया गया और उसका नाम भी इसी के हिसाब से "हक प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश" प्रस्तावित हुआ।
पहले एडीशन पर आर्यों में एक असाधारण जोश पैदा हुआ। इसके जवाब देने का विज्ञापन भी निकला, बल्कि रिसाला आर्य मुसाफ़िर में थोड़ा बहुत जवाब भी निकला । लेकिन अन्त में वही बात सामने आयी - - कि
हबाब बहर को देखो यह कैसा सर उठाता है
तकब्बुर वह बुरी शै है कि फौरन टूट जाता है
हम इन्तिज़ार में थे कि पूरा जवाब सामने आए तो दूसरे एडीशन में इस ओर भी कृपा हो जाए मगर अफसोस कुछ नम्बरों में जो अभी आरंभ ही हुए थे कि उत्तरदायी आलोप हो गए। सितम्बर 1902 ई तक जवाबुल जवाब की भनक तक न आयी बल्कि पांचवे एडीशन (जुलाई 1924 ई0) तक भी उनकी आवाज न आयी।
दिल की दिल ही में रही बात न होने पायी
हैफ सर हैफ मुलाकात न होने पायी
जितना लेख आर्य मुसाफ़िर रिसाला में छपा था उसका जवाब उन्हीं दिनों में रिसाला अनवारुल इस्लाम सियालकोट में तुरन्त निकल गया था फिर भी कुछ बातों का जवाब जो इस नाचीज़ से खास संबंध रखती हैं समय समय पर दिया जाएगा। जवाबुल जवाब के वाक्य से पहले मोअय्यद (मददगार) का शब्द होगा। जैसे कि स्वामी के वाक्य के सिरे पर शब्द मुहक्किक आपत्ति का शब्द मिलेगा। मोअय्यद (मददगार) ने जवाब की भूमिका में मुझ पर आरोप लगाया है कि सत्यार्थ प्रकाश लिखे हुए 26 साल हो गए, अब तुम्हें जवाब सूझा। मगर अफ़सोस कि उन्होंने यह नहीं समझा कि 26 साल यदि गुजरे हैं तो नागरी ही में गुजरे हैं लेकिन जब देश की सामान्य भाषा उर्दू में आप लोगों ने इसका जलवा दिखाया तो जवाब की जरूरत भी महसूस हुई फिर तुरन्त कर्ज उतारा गया।
इसके अलावा यह आरोप तो स्वामी जी पर भी है कि कुरआन को उतरे हुए तेरह सौ साल हुए और अब स्वामी से बड़ी मुश्किल से यह बन पड़ा जो आगे आता है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी तो पैदा ही अब हुए हैं वे तेरह सौ साल पहले किस प्रकार कुरआन पर आपत्ति व्यक्त करते तो निवेदन यह है कि यह नाचीज़ भी तो स्वामी जी के जमाने के बाद ही व्यस्क और ज्ञान की प्राप्ती तक पहुंचा है। यदि मुझे उनसे मुलाकात का अवसर मिलता तो शायद उनको सत्यार्थ प्रकाश लिखते हुए चौदहवां अध्याय लिखने की जरूरत न पड़ती।
इस जवाब के "हक प्रकाश" की सूरत में प्रकाशित होने के बाद स्वामी दर्शना नन्द [3] को जवाब का ध्यान आया अतएव उन्होंने अपनी मासिक पत्रिका मुबाहसा के एक दो नम्बरों में जवाब देना आरंभ किया। उसे देखकर हम लम्बे समय तक इन्तिज़ार करते रहे कि स्वामी जी खत्म करें तो इसके जवाब का फैसला तीसरे एडीशन में कर दें मगर अफ़सोस कि स्वामी दर्शना नन्द भी एक दो कदम चलकर ऐसे गिरे कि दुनिया सिधारे जाने तक इधर का रुख न किया।
प्रिय पाठको ! आर्यो के मिशन में जितनी धार्मिक पुस्तकें होती हैं। व्यक्त करने की जरूरत नहीं मगर हक प्रकाश के जवाब पर साहस न जुटा पाना क्या कारण रखता है ? यही उनका ज्ञान भी इसी बात का फैसला करता है कि स्वामी दयानन्द जी की आपत्तियां कुछ खास महत्व नहीं रखतीं। भवदीय
भवदीय लेखक अमृतसर ।
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[फुटनोट 1- स्वामी बड़ा सम्मानित शब्द है। आर्य समाज हमारे पैगम्बर हजरत मुहम्मद मुस्तफा ﷺ का नाम केवल मुहम्मद लिखते और एक वचन के कलिमे से बयान करते हैं जैसे लिखते हैं 'मुहम्मद' पैदा हुआ, मुहम्मद कहता था यह एक सामान्य दर्ज के लोगों के लिए है मगर हम उनके गुरू को इज्जत ही से याद करेंगे क्योंकि इस्लाम का यही आदेश है ।
(2-)हिन्दुओं ने अपने लेख के बारे में इस किताब के अनेक जवाब दिए हैं अतएव कुछ के नाम ये हैं। दयानन्द तमर भास्कर, सत्यार्थ भास्कर, दयानन्द सुभावे प्रकाश, ईसाइयों के जवाब का नाम है सत्यार्थ प्रकाश]
[3- आह ! आज ये बुजुर्ग हम से सदैव के लिए बिछड़ गए हैं। आर्यों में बड़ी खूबी के आदमी थे देवरया जिला गोरखपुर के बाद विवाद में यही सज्जन हमारे मुकाबले में थे। कडवी कसीली बात करना, दिल दुखान। जो दूसरे बहुत से आर्यों की आदत है इनमें न थी।]
//////////आपत्ति 1 से 24 तक बढ़ाया गया है पीडीएफ़ देखें /////
आपत्ति नंबर 1
क़ुरआन सुरह फ़ातिहा आयत : 1
"आरंभ अल्लाह के नाम के साथ क्षमा करने वाले कृपालु के"
(आयत : 1)
आपत्ति - 1
मुसलमान लोग ऐसा कहते हैं कि यह कुरआन अल्लाह का कलाम है लेकिन इस कथन से मालूम होता है कि इसका बनाने वाला कोई दूसरा है क्योंकि यदि खुदा का बनाया हुआ होता तो "आरंभ अल्लाह के नाम के साथ ऐसा न कहता बल्कि" आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता ।
यदि मनुष्यों को नसीहत करता है कि तुम कहो तब भी ठीक नहीं क्योंकि उससे गुनाह का शुभारम्भ भी अल्लाह के नाम से होना सादिक आएगा और उसका नाम भी बदनाम हो जाएगा यदि वह क्षमा और दया करने वाला है तो उसने अपने प्राणियों में मनुष्यों के आराम के लिए दूसरे जानदारों को मारकर कठोर यातना देकर और जबह कराकर गोश्त खाने की (मनुष्य को) इजाज़त क्यों दी ?
क्या वे जानदार, बे गुनाह और ईश्वर के बनाए हुए नहीं हैं ? और यह भी कहना था कि “ईश्वर के नाम पर अच्छी बातों का शुरारंभ" खराब बातों का नहीं । ये शब्द उलझे हुए हैं । क्या चोरी, व्याभिचार, झूठ बोलना अधर्म कामो का शुभारम्भ भी ईश्वर के नाम पर किया जाए ? इसी कारण देख लो कि कसाय आदि मुसलमान गाय आदि की गर्दन काटने में भी "बिस्मिल्लाह" पढ़ते हैं (अर्थात ईश्वर का नाम लेते हैं ) जब इसका यही मतलब है तो बुराइयों को भी मुसलमान ईश्वर के नाम पर करते हैं और मुसलमानों का ईश्वर दयावान भी साबित नहीं होता क्योंकि उसकी दया उन जानवरों व जान दारों के लिए नहीं है और यदि मुसलमान इसका मतलब नहीं जानते तो इस कलाम का उतारा जाना बेकार है । यदि मुसलमान इसका अर्थ और करते हैं तो फिर इसका असल अर्थ क्या है ?
[ आरंभ अल्लाह के नाम के साथ ऐसा न कहता बल्की आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता" मेरी बात पर गौर करे इससे पहले की हम सनाउल्लाह साहब का जवाब रखें कुछ बातें साफ कर देता हूं। पहली बात यह की अगर स्वामी दयानन्द सरस्वती को यह एहतराज़ है की अल्लाह का कलाम अल्लाह के नाम से शुरु नही होना चाहीए क्योंकी अल्लाह किस अल्लाह का नाम लेकर शुरु करेगा ? अल्लाह का तो कोई अल्लाह नही हो सकता क्योंकी अल्लाह एक ही हैं तब जबकी आर्य समाज भी एकेश्वर वादी हैं तो वेद भी परमेश्वर की स्तुति (तारीफ,गुणगान, प्रशंसा) से शुरु नही होने चाहीए ! यदि वेद ईश्वर ने बनाए हैं तो वेदिक ईश्वर किस ईश्वर की स्तुति कर रहा है?
अल्लाह शब्द का अर्थ अल्लाह अल और ईलाह से बना हैं ईलाह का अर्थ हैं ईश्वर, परमात्मा,या उपसना योग्य अल अरेबी भाषा में किसी को निश्चित या विशिष्ट करने के लिए लगाया जाता हैं। तब अल और ईलाह मिला कर अल्लाह का अर्थ होगा वही एक उपासना योग्य परमेश्वर।
ऋग्वेद वेद अष्टक १ अध्याय १वर्ग १-२ मण्डल १ सुक्त १ अनुवादक १ मंत्र
हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा और कर्म के देने तथा ग्रहण करने वाले उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि कायनात) के धारण करने वाले (अपनाने वाले) बारंबार उत्पत्ति के समय स्थूल सृष्टी के रचने वाले तथा रितु-रितु यानी मौसम दर मौसम मे उपासना (इबादत) करने योग्य और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी(जमीन अरेबी का अर्द शब्द और उर्दू का जमीन शब्द पृथ्वी के लिए भी आता हैं और पृथ्वी के ऊपरी सिरे के लिए भी और सुवर्ण सोना) आदि रत्नों(जवाहरात) के धारण करने वा देने तथा सब पदार्थ (चीजों) के प्रकाश करने वाले (पैदा करने वाले) परमेश्वर (खुदा) की हम स्तुति (तारीफ) करते हैं।
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1
पंडित हरिशरण सिद्धान्तलंकार जी का अनुवाद
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1
मैं अग्नि - पुरोहित - यज्ञ के देव ऋत्विज् - होता व रत्नधाता प्रभु की स्तुति करता हूँ ।
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1
नोट - यहां इस मंत्र को प्रस्तुत करने से सनाउल्लाह साहब का मतलब यह था की अगर वेद ईश्वरीय ग्रंथ हैं तो ऋग्वेद का पहला ही मंत्र यूं होना चाहीए था:-
"हे मनुष्यों मुझ सत्कार संगम महिमा और कर्म के देने तथा ग्रहण करने वाले उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टी(कायनात) के धारण करने वाले (अपनाने वाले) बारंबार उत्पत्ति के समय स्थूल सृष्टी के रचने वाले तथा ऋतु- ऋतु यानी मौसम दर मौसम में उपासना इबादत) करने योग्या (लायक) और निश्चय करके मनोहर पृथ्वी(जमीन अरेबी का अर्द शब्द और उर्दू का जमीन शब्द पृथ्वी के लिए भी आता हैं और पृथ्वी के ऊपरी सिरे के लिए भी) और सुवर्ण (सोना) आदि रत्नों(जवाहरात) के धारण करने वा देने तथा सब पदार्थों (चीजों)के प्रकाश करने वाले (पैदा करने वाले) मुझ परमेश्वर (खुदा) की तुम लोग स्तुति (तारीफ़) करो"
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1
लेकीन जो ऋग्वेद के पहले ही मंत्र में लिखा हैं परमेश्वर की हम स्तुति करते हैं, से स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद एवम अन्य वेद ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं नाकी यह ईश्वर की तरफ से हैं।
इसके अलावा ऐसे मंत्र और भी जगह है। जैसे यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18 (हिन्दी हक़़ प्रकाश मे गलत छप गया हैं यजुर्वेद अध्याय 21 मंत्र 18)
यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18 ]
अब आगे सनाउल्लाह साहब का जवाब दर्ज होगा।
आपत्ति का जवाब
स्वामी जी यदि ऋग्वेद मंत्र (1) को देख लेते तो यह बेजा आपत्ति न कर पाते । समाजियो ! तनिक ध्यान से सुनो !
"हम लोग इस अग्नि की प्रशंसा करते हैं जो कि हमारा पूरा हित करने वाली, यज्ञों का हवन करने वाली, रौशन मौसमों को बदलने वाली, समस्त तत्वों को पैदा करने वाली है।"
ऋग्वेद मंडल 1 सूक्त 1 मंत्र 1
बताओ ! यदि अग्नि से (आप के कथनानुसार) ईश्वर ही तात्पर्य है और वेद भी अल्लाह का कलाम है तो उस कलाम को मानने वाला कौन है ? इसके अलावा यजुर्वेद अध्याय 2 मन्त्र 18
यजुर्वेद अध्याय 2 मंत्र 18
और अथर्ववेद कांड 6 सूक्त 98 मंत्र 1
अथर्ववेद कांड 6 सूक्त 98 मंत्र 1
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 14
यजुर्वेद अध्याय 32 मंत्र 14
यजुर्वेद अध्याय 20 मन्त्र 50
यजुर्वेद अध्याय 20 मंत्र 50
ऋग्वेद मण्डल 8 सूक्त 1 मंत्र 1
ऋग्वेद मंडल 8 सूक्त 1 मंत्र 1
यजुर्वेद अध्याय 15 मन्त्र 54
यजुर्वेद अध्याय 15 मंत्र 54
अब इसका शोधपूर्ण जवाब सुनिए ।
अब उपरोक्त मन्त्रों को देखकर बताइए की यहां ईश्वर किस ईश्वर की स्तुति कर रहा है यदि वेद ईश्वर की वाणी है?
ईश्वरीय किताबों का मुहावरा और कलाम की शैली कई प्रकार की होती है कभी तो ईश्वर स्वयं बात कहने के रूप में अपना आदेश स्पष्ट करता है और कभी गायब से और कभी कोई ऐसा मतलब जो दुआ या निवेदन के रूप में बन्दों को सिखाना अपेक्षित हो उसे बंदे की जबान से व्यक्त कराया जाता है । सूरह फातिहा भी इसी आखिरी किस्म से है जिस पर स्वामी जी ने अनभिज्ञता के कारण ईश्वरीय ग्रन्थ पर आपत्ति कर दी हा, यह भली कही कि गुनाह का शुरारंभ भी ईश्वर के नाम से होगा जिसका जवाब यही काफी है, कि
नांच न जाने आंगन टेढ़ा
न जाने आपको इतनी जल्दी क्या थी कि कुरआन शरीफ और अन्य ईश्वरीय किताबों का रद्द करने बैठ गए । पहले किसी अरबी मदरसा में रहकर कुरआन को समझ लेते मगर वाह री सच्चाई, कि अपना विचार व्यक्त किए बिना नहीं रह सकती, स्वामी जी वाक्य न0 73 में लिखते हैं ।
जो धर्म दूसरे धर्मों को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा स्पष्ट करे । इस से बढ़कर झूठा धर्म और कौन हो सकता ।
सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80
(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)
अतः स्वामी जी महाराज और उनके चेलों के लिए तो इतना ही काफी है कि कुरआन शरीफ के मानने वाले करोड़ों लोग हैं फिर जो तुम उसकी शिक्षा को झूठा और गलत कहो तो तुम से अधिक . . . . . . कौन है ?
समाजियो ! मुंह न छुपाओ । हुआ क्या ? यदि चेले बनने का इकरार करो तो हम तुम्हें एक जवाब सिखाते हैं । सुनों ! साफ कह दो स्वामी जी कोई ईश्वरीय न थे कि उनकी सारी बातें मानने योग्य हों बल्कि वे समाज के एक सदस्य थे जिनसे गलती भी संभव थी । इस कथन में भी वे गलत चाल चले कि अधिसंख्यक वाली राय को हकीकत के विरुद्ध समझा तो यदि तुम यह कह दोगे तो तुम मुक्त हो जाओगे लेकिन चूंकि हम इस समय स्वामी जी के मुकाबिल हैं । उनके जवाब देने को उनके कथनों को नकल करना काफी होगा ।
मतलब आयत का साफ है कि हम ईश्वर की प्रशंसा को जो आगे कलाम में आती है ईश्वर के नाम से आरंभ करते हैं, हां यदि कोई काम भी नेक या वैध हो और ईश्वर के नाम से आरंभ हो जाए तो यह अच्छी ही बात है और पुण्य का कारण है ।
हराम काम को बिस्मिल्लाह ( ईश्वर के नाम से ) से आरंभ करना या हराम चीज़ बिस्मिल्लाह पढ़ कर खाने से आदमी काफिर हो जाता है, हां जानवरों के जबह की ओर भी मौके पर इशारा किया है ।
स्वामी जी ! निश्चय ही यह बड़ी दया की बात है कि बेजबान जानवरों को जबह करके उनकी कैद के दिन पूरे कराए जाएं जिससे दो लाभ अपेक्षित हैं । एक तो वे आत्माएं जो (आपके कथनानुसार) बुरे कर्मों से उन हैवानी शरीरों में आकर फंस रही हैं (देखो उपदेश मंजरी पृष्ठ - 60) कैद से छुटकारा पाएं । दूसरे यदि वे मनुष्य की भान्ति बीमार रह कर अपनी मौत मरें तो कितने कष्टों के बाद उनकी आत्मा निकले । स्वामी जी के हमें कहीं दर्शन हो जाएं तो हम उनसे पूछे मौत की सख्ती कितनी कठिन काम है अतः इस सख्ती के मुकाबले में जबह की सख्ती कोई चीज नहीं । मनुष्य को बीमारी और आत्मा के निकलने से जो तकलीफ होती है स्वामी जी उसका अनुमान लगाते तो यह आपत्ति कभी अपनी जबान पर न लाते बल्कि समाज का पहला उसूल यही ठहराते कि सुबह उठकर हर समाजी का कर्तव्य है कि बन्दूक लेकर दस पांच चिड़यों को या मक्खियों ही को मारा करे यद्यपि मनुष्य अपनी तकलीफों को स्वयं ही व्यक्त कर सकता है और हकीमों के मशवरों से उन तकलीफों में कभी-कभी कमी भी संभव है मगर बेचारे बेजबान जानवर क्या कहें और किस को कहें ?
हां कोई साहब यह सवाल करें कि इसी तरह मनुष्य को भी ज़बह करके मौत की सख्ती से बचा लेना चाहिए तो हम कहेंगे - - 'नहीं' इसलिए कि मनुष्य सारे प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है इस लिए हर जमाने में हर हुकूमत मनुष्य की हत्या करने पर दंड देती है इसके अलावा मनुष्य के सगे संबंधी और दोस्त कभी इस बात की इजाजत नहीं दे सकते क्योंकि उसके मरते दम तक उनको जिन्दा रहने की उम्मीद होती है जिससे उनकी बहुत सी आशाएं व मनोकानमाएं जुड़ी होती हैं अतः इन कारणों से मनुष्य को मारने में दंगा फसाद का खतरा है इस लिए न किसी समय के शासक ने न किसी धर्म शास्त्र ने इसकी अनुमति दी, हां हैवानात के जबह में चूंकि कोई फसाद नहीं इसलिए सामान्य विश्वसनीय धर्मों में जानवरों के जबह की अनुमति पायी जाती है यहां तक कि हिन्दू धर्म शास्त्र (मनु स्मृति आदि) में भी ।
स्वामी जी ! विश्व व्यवस्था से बढ़कर कोई सद कर्म नहीं । यह व्यवस्था हमें शिक्षा दे रही है कि इस संसार में ईश्वर ने अपने प्राणियों को दो ही प्रकार पर पैदा किया है । बरतने वाली और इस्तेमाल योग्य । कुछ सन्देह नहीं कि मनुष्य सब चीजों को बरतने वाला है और सारी वस्तुएं उसके बरतने योग्य हों । स्वामी जी ! क्या यह ईश्वर की दया नहीं कि उसने हमारी सवारी के लिए हाथी, ऊंट, घोड़ा आदि और हल चलाने को बैल, भैंस आदि पैदा किए । क्या उससे अधिक भी कोई व्यक्ति दया खाकर अपनी सवारी पर दस कोस चलकर दो कोस के लिए उसे अपने ऊपर बिठाना चाहे तो सारे विद्धान और मूर्ख लोग उसे मूर्ख न समझेंगे यद्यपि आपकी समझ के अनुसार यह क्या दया है कि एक जानदार दूसरी जानदार वस्तु को अकारण इतना दबाए कि सारा दिन रात उस पर सवारी करे । आप एक कदम न चलें और वह बेचारा उसको उठाए फिरे और सवार दया न करे ।
समाजियो ! कायनात की व्यवस्था से शिक्षा ग्रहण करो जो सब गुरुओं का गुरू है । बनावटी गुरुओं से गलती संभव है इसमें कण भर गलती न पाओगे ।
इसके अलावा यदि हम इन हैवानों को जबह न करें तो क्या करें । रखने से हमें लाभ ही क्या । कुछ हैवान तो दूध आदि भी दें मगर कुछ ऐसे हैं कि दूध नहीं देते और दूध देने वाले भी एक आयु को पहुंच कर नहीं देते यद्यपि हम उनको खाना दें और रक्षा भी करें जैसे मुर्गी मुर्गा आदि । यदि इनके अंडे खाएं तो आप इसकी भी अनुमति नहीं देते और यदि अंडों से बच्चे निकलवाएं तो फिर क्या यही प्रमाण देंगे । अतः या तो स्वामी जी ऐसे जानवरों के खाने की इजाजत दें जिनसे मानव जाति को कुछ लाभ न हो या कोशिश करके उनसे कोई लाभ दिलवाएं । मगर याद रहे कि प्रकृति का मुकाबला करके लाभ तो दिलवा नहीं सकते, हां यदि दबी जबान से खाने पीने की अनुमति दें तो वही सवाल पैदा होगा कि वे जानदार और ये गुनाह ईश्वर के बनाए हुए नहीं ? और यदि यह भी न करें और जानवरों को मनुष्यों के बराबर ही अधिकार दिलाना चाहें तो कृपा करके पहले दूसरी प्रकार के अधिकारों में समानता कराएं फिर उसका नाम लें ।
हमारे पास वेद मंत्रों के हवाले भी हैं जिनसे साबित होता है कि पहले जमाने में हवन में गाय घोड़े आदि जबह किए जाते थे मगर चूंकि वह अनुवाद स्वामी जी का किया हुआ नहीं बल्कि यूरोपीन विद्वानों का किया हुआ है । खतरा है कि हमारे समाजी दोस्त जो स्वामी जी के श्रद्धालु हैं उस अनुवाद से इन्कारी हो जाएं । इसलिए बजाए उन मंत्रों के स्वामी जी के कलाम का हवाला देना भी बेहतर है । आप इस किताब के चौदहवें अध्याय में लिखते हैं . . . . . कि . .
जो धर्म दूसरे धर्मों को, कि जिनके हजारों करोड़ों आदमी श्रद्धालु हों झूठा बता दे और अपने को सच्चा स्पष्ट करे । इस से बढ़कर झूठा धर्म और कौन हो सकता ।
सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 आपत्ति 80
(पहले पैराग्राफ की पांचवी लाइन से पढ़ें)
अतः समाजियो ! बताओ, मांसाहारियों की संख्या गिन सकते हो ? गिनते हुए पहले अपनी मांस पार्टी1 से आरंभ करना।
स्वामी जी के मददगार
1 - मौलवी साहब! आपने स्वामी जी की आपत्ति को क्या समझा जिसका जवाब दिया । स्वामी जी ने जो आपत्ति की थी वह यह थी कि कुरआन चूंकि मुहम्मद के कथनानुसार ईश्वरीय कलाम होने से सर्वकालिक और अनादिकालिक है अतः उसका आरंभ नहीं हो | सकता फिर आरंभ करने का कलिमा निरर्थक है ।
2 - अल्लाह का यह कलाम ईश्वर के नाम पर आरंभ करना और भी आश्चर्य जनक है क्योंकि इसकी ज़रूरत अल्लाह को नहीं बल्कि मनुष्य को है और मनुष्य के लिए ईश्वर का कलाम मार्ग दशर्क के रूप में होता है अतः मार्गदर्शन मनुष्यों के लिए होना चाहिए था ।
3 - मौलवी साहब आपने शायद यह समझा कि स्वामी जी ने उसके स्वयं संबोध करने न करने पर आपत्ति की है कदापि नहीं उनकी आपत्ति थी कि अल्लाह को यह कलाम अपने नाम से आरंभ करने की क्या जरूरत थी । अल्लाह के नाम से तो मनुष्य आरंभ किया करते हैं । ( आर्य मुसाफिर मार्च 1902 ई0 )
आपत्ति का जवाब
अब ऐसे ज्ञान पर कोई कैसे न कुरबान हो जाए । पूरा मतलब तो इस वाक्य का इन मददगार साहब ही ने समझा होगा हमने तो कुछ आर्यों को भी यह वाक्य दिखाया मगर वे भी कानों पर हाथ रख गए । मतलब यह कि कुछ भी हो स्वामी जी के असल सवाल पर किसी व्याख्या या समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं अतएव वे स्वयं ही । लिखते हैं
"क्योंकि यदि ईश्वर का बनाया होता तो आरंभ साथ अल्लाह के न कहता बल्कि आरंभ वास्ते हिदायत मनुष्यों के ऐसा कहता।"
देखिए स्वामी जी को "आरंभ" के शब्द पर कोई आपत्ति नहीं क्योंकि यदि "आरंभ'' के शब्द पर कोई आपत्ति होती तो अपनी इस्लाह में आरंभ का शब्द क्यों लाते जिससे यह साफ समझा जाता है कि आपकी पुष्टि या समर्थन का नम्बर अव्वल अथति अनादिकालिक होने की वजह से आरंभ न होना बिल्कुल बे समझी की पुष्टि है ।
मददगार साहब के समर्थन का नम्बर (2) भी हैरत से खाली नहीं है इसका मतलब भी वे स्वयं ही समझे होंगे । खैर कुछ भी हो मतलब वही है जो हम बतला आए हैं कि बन्दों के प्रदर्शन के लिए ऐसा किया गया । हां स्वामी जी की यह आपत्ति कि गुनाह का आरंभ भी अल्लाह के नाम से अवश्य आएगा इसका जवाब भी हो चुका कि यहां सब कामों का आरंभ करना तात्पर्य नहीं बल्कि उसी काम का जो बिस्मिल्लाह के आगे है अर्थात अलहम्दु लिल्लाह या कोई और इसी प्रकार का भला काम ।
मददगार साहब ने यह भी आपत्ति की है कि यह बिस्मिल्लाह पारसियों के कलाम से लिया गया है अर्थात "बनाम बखशाइन्दा दाद गर" अफसोस है कि उन लोगों को आपत्ति करने की राल क्यों ऐसी टपका करती है कि दूसरे कलाम के अर्थ समझने से पहले ही अनेक आपत्तियां जमा देते हैं यद्यपि स्वामी जी भूमिका सत्यार्थ प्रकाश में बड़ी ताकीद से लिखते हैं कि
"हर कलाम का मतलब कहने वाले की मन्शा पर होना चाहिए।"
यदि यह बात मान भी ली जाए कि बिस्मिल्लाह पारसियों के कलाम का अनुवाद है तो मुसलमानों के धर्म के अनुसार इसके ईश्वरीय होने पर क्या आपत्ति ? हमारा तो यह धर्म नहीं कि ईश्वरीय कलाम वह होता है जिससे पहले न तो वह और न उसका अनुवाद दुनिया में कहीं हुआ हो न हो । देखिए कुरआन मजीद स्पष्ट शब्दों में इस्लाम से पूर्व की ईश्वरीय किताबों की तसदीक करता है और स्पष्ट शब्दों में कहता है ।
"तुम मुसलमानों को और तुम से पहले किताब वालों को यही आदेश दिया गया था कि ईश्वर का भय दिल में रखो ।''
चूंकि आर्यों की गलती का मौलिक पत्थर यहीं ना समझी है कि ईश्वरीय कलाम का गुजरा हुआ न होना उनके निकट शर्त है अर्थात यह कहते हैं कि ईश्वरीय वाणी वहीं है जो दुनिया के प्रारंभ में उसके बाद कोई ईश्वरीय वाणी नही इसी लिए तौरेत और इंजील और कुरआन आदि को ईश्वरीय नहीं मानते । अतः हम चाहते हैं कि उनकी इस गलती का सुधार इसी जगह कर दें।
यद्यपि यह दावा उनका वेद_2 के ईश्वरीय होने पर भी मुश्किल पैदा करता है क्योंकि वेद में भी लिखा है कि
"जिस प्रकार प्राचीन काल के विद्वान तुम्हारे पूर्वज समस्त विद्याओं के माहिर गुजर चुके हैं मुझ कादिर मुतलक ईशवर के आदेश का पालन करते रहे हैं तुम भी उसी धर्म के पाबन्द रहो ताकि वेद में बताए हुए धर्म का तुम को निस्संदेह ज्ञान हो जाए।”
(वृग वेद अशटक - 8 अध्याय 8)
इस वाक्य से साफ़ समझ में आता है कि वेद किसी ऐसे युग में बना है कि उस दौर में दुनिया की आबादी इतनी अधिक हो चुकी थी कि उस समय के मौजूदा लोगों को बुजुर्गों के हाल से शिक्षा ग्रहण करने की या यूं कहिए कि वेद के लेखकों को आवश्यकता पड़ती थी और वे उनका उदाहरण लोगों को बताते थे यदि कहे कि दुनिया का सिलसिला चूंकि हमारे (आर्यो के) निकट प्राचीन काल से है तो इस दुनिया के आरंभ ही में उस समय के वर्तमान लोगों को पहले लोगों की जो पहली दुनिया में गुजर चुके थे चाल अपनाने की प्रेरणा दी गयी है तो इसका जवाब यह है कि ऐसा कलाम जैसा कि वेद का उपरोक्त आदेश है इस अवसर पर बोला जाया करता है जहां सम्बोधित लोगों को पहले बुजुर्गों का ज्ञान और जान कारी हो यद्यपि इस दुनिया के पैदा हुए लोगों को पहले बुजुर्गों की कोई खबर नहीं थी किसी को यदि हो तो बताइए ।
इसके अलावा बड़ी परेशानी यह है कि आर्यो के धर्म में वेद में वेद ईश्वर के ज्ञान का नाम हैं तो जब से ईश्वर है तब से वेद है यद्यपि वेद के शब्द वर्तमान संसार के नष्ट होने से नष्ट हो जाते हैं मगर उसके मायना ईश्वर के ज्ञान में मौजूद रहते हैं इस दुनिया से पहली दुनिया में भी होगा बल्कि जब से ईश्वर है तब से होगा यद्यपि ईश्वर से पहले कोई ज़माना नहीं जिसमें वे बुजुर्ग गुजर चुके हैं। जिनकी चाल अपनाने का उन मौजूद लोगों या हमें आदेश होता है।_3 मगर मुसलमानों और ईसाइयों का धर्म यह नहीं कि ईश्वरीय संकेत दुनिया के आरंभ ही में होगा तो सही वर्ना गलत । बल्कि असल यह है कि ईश्वर की ओर से एक विचार का बिना कुछ किए दिल में डाला जाना ईश्वरीय संकेत है । किसी लेखक के दिल में किसी का आ जाना भी यद्यपि एक मायना से इलहाम है मगर यहां पर जिस ईश्वरीय संकेत से बहस है वह यह नहीं । बल्कि वह तात्पर्य है जो किसी अभ्यास या सोच या चितन का नतीजा न हो बल्कि मात्र अल्लाह की ओर से इलका (हिदायत) हो चाहे वह विचार इस इलहाम से पहले तमाम लोगों को मालूम हो या न हो चाहे दुनिया के आरंभ में हो या मध्य में या अन्त में हो ।
क्योंकि इस बात से कोई दलील बाधा नहीं कि एक किताब या एक विषय जो पहले किसी नबी को इलहाम हुआ था उसके बाद भी किसी नबी को इलहाम हो जाए । इसका उदाहरण ऐसा समझो कि किसी व्यक्ति को परीक्षा पास होने की खबर किसी ज़रिए से बिना सरकारी गुजट के पहुंच गयी मगर इसके बाद उसी सरकारी गजट में भी ख़बर आ गयी ।
ठीक इसी तरह नबियों को किसी पूर्व नबी के ईश्वरीय संकेत द्वारा कोई बात मालूम हो जाया करती है लेकिन नए सिरे से भी वही विचार ईश्वरीय संकेत के रूप में मिल जाता है । ठीक यही समस्त पूर्व किताबों और कुरआन शरीफ की मिसाल है । मुसलमानों में जो यह मशहूर है कि तोरात और इंजील कुरआन से निरस्त है इसके भी यह अर्थ हैं कि कुरआन द्वारा वे विचार पूरी तरह पहुंच कर मानो रजिस्टर्ड पत्र की तरह सुरक्षित हो चुके हैं ऐसे कि इससे पहले न थे क्योंकि बाद में इन किताबों में बहुत कुछ मिला लिया गया था मगर जो जो बातं, पथ प्रदर्शन कुरआनी ईश्वरीय संकेत द्वारा पहुंची तो उसके बारे में यह संदेह बिल्कुल दूर हो गया । और यही अर्थ है कुरआन शरीफ़ की आयतों का ।
"कुरआन पहली किताबों की पुष्टि करता है और उनपर निगहबान भी है तो तुम लोगों के बीच उसके अनुसार फैसला करो जो अल्लाह ने उतारा है ।"
(सूरह माइदह - 43)
तो बिस्मिल्लाह से पहले बिस्मिल्लाह का अनुवाद दुनिया में मौजूद होना उसके ईश्वरीय होने के खिलाफ नहीं । मगर जब पैगम्बरे इस्लाम (सल्ल0) को यह पथ प्रदर्शन ईश्वर की ओर से मिल गयी तो ईश्वरीय हो गयी । शुक्र है कि जो वेद मन्त्र हमने आरंभ में जवाब में नक्ल किए थे उनके बारे में मददगार साहब ने भी कुछ न कहा और खामोश होकर पास से गुजर गए और खामोशी मान लेना सहमत होने के दर्जे में है ।
मददगार साहब ने मांसाहारी पर एक और आपत्ति भी की है कि अच्छे से अच्छा जानवर तो खा लेते और भयानक दरिन्दों (शेर, चीता आदि) को हराम समझते हो । यह सवाल मददगार साहब का उस समय उचित था जब वे मांसाहारी को वैध मान लेते और उसके विवरण पर उनको आपत्ति होती लेकिन जिस सूरत में वे पूरी तरह मांसाहारी के इन्कारी हैं तो फिर उसे विस्तार में जाकर प्रस्तुत करने का उनको क्या हक है ? क्या यदि हम एक प्रकार के जानवरों को खा लिया करें तो आर्य लोग हम से सहमत हो जाएंगे ? कदापि नहीं ।
चूंकि लाला साहब और उनके अन्य साथियों के कलम से यह सवाल हमेशा निकला करता है इसलिए मुनासिब है कि इसका जवाब भी दे दिया जाए । गाय का सम्मान क्यों न हो । लाला साहब यदि चिकित्सा संबंधी और मेडिकल उसूलों को अपने समक्ष रखते तो कभी यह आपत्ति न करते । चिकित्सा संबंधी विषय पर छोटी छोटी किताबों में यह बात मिलती है कि जो आहार मनुष्य खाता है वह शरीर का अंश बन कर अपना प्रभाव दिखाता है । इस तिब्बी तहकीक से बढ़कर शरई तहकीक है क्योंकि तिब्ब तो केवल शरीर की रक्षक है मगर शरीअत शरीर और आत्मा दोनों की रक्षक है । लेकिन इन दोनों में आत्मा की रक्षा सर्वोपरि है जिसकी रक्षा का अर्थ तो सब जानते हैं कि बाहरी कष्ट व तकलीफ़ से रक्षा की जाए । आत्मा की रक्षा का अर्थ यह है कि उसे बुराइयों से बचाया जाए जो उसके लिए दूसरे जीवन में तबाही का कारण होती है ।
अतः जो चीजें या जानवर शरीअत ने हराम किए हैं वे उसी उसूल की दृष्टि से किए हैं । इन दरिन्दे जानवरों को तो आप भी खूख्वार मानते है । जिनके खाने से निश्चय ही आदमी पूरा नहीं तो आधा खूख्वार हो जाएगा । क्या आप बता सकते हैं कि चोरी के माल से पूरी कचौरी या भाजी खरीदना क्यों हराम है प्रत्यक्ष में शारीरिक हानि तो उसमें कोई नजर नहीं आती मगर चूंकि दूसरे जीवन में इसकी हानि सामने आ जाएगी इसलिए हराम है अतः इसी तरह सारे कामों को समझ लीजिए जो शरीअत में हराम हैं कि जो चीज़ मनुष्य के दूसरे जीवन या उसी जीवन में उसके आचरण पर बुरा प्रभाव डालती हो उसे शरीअत ने हराम ठहराया है ।
आप लोग नैतिक प्रभाव के विवरण से परिचित न होंगे । नैतिक प्रभाव कभी तो यह होता है कि उसके काम के करते समय आदमी कोई अनुचित हरकत कर गुजरता है जैसे शराब की मसती में नाजायज हरकतें करता है । एक नैतिक प्रभाव यह होता है कि उसकाम के करने से या उस चीज़ के खाने से भविष्य में उसकी आत्मा को हानि पहुंचती है उस पर बुरा प्रभाव पड़ता है और नतीजा यह निकलता है कि उसकी नेक कामों में तबियत नहीं लगती ।
फिर यदि वह इसका जल्दी इलाज न करे तो धीरे धीरे उसकी नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि वह बिल्कुल मूर्ख या पागल की तरह ला इलाज हो जाता है फिर उसे किसी नेक काम को करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता कुरआन से इस दावे का सबूत चाहो तो हर सूरह व आयत से मिल सकता है । एक आयत सुनो
“जब वे लोग टेढ़े हुए तो अल्लाह ने उनके दिलों को टेढा कर दिया"
( सूरह सफफ - 5 )
यदि अपने स्वामी जी के कलाम से सनद चाहो तो सुनो-स्वामी जी बौद्धों के बारे में क्या लिखते हैं
"उन्होंने (बौद्ध धर्म वालों ने) किस दर्जा अपनी अज्ञानता में प्रगति की है जिसका उदाहरण उनके सिवा दूसरा नहीं हो सकता । विश्वास तो यही है कि वेद और ईश्वर का विरोध करने का उन्हें यही नतीजा मिला ।"
( सत्यार्थ प्रकाश 541 - - अध्याय 12 न0 17 )
इस वाक्य से साफ़ मालूम हुआ कि एक गुनाह दूसरे गुनाह का कारण बन जाता है अतः जिस दर्जा में कोई आहार रूहानी तौर पर बुरा प्रभाव करने वाला होता है उसी अन्दाज़ से शरीअत में मनाही होती है यही कारण है कि शरीअत इस्लाम में कुछ चीजें सख्त हराम हैं और कुछ किसी दर्जा कम जिनको मकरूह कहते हैं ।
दरिन्दे जानवरों की हुरमत भी इसी उसूल पर आश्रित हैं मतलब यह है कि एक उसूल है कि समस्त काम इसी नियम के मोहताज हैं । हा इस बात का पता लगाना कि कौन सी चीज़ या काम अनैतिक हैं । और वह आध्यात्मिक जीवन में बुरा प्रभाव डालने वाली है और कौन | ऐसी नहीं है यह हरेक के बस का काम नहीं बल्कि उनका काम है । जिनको ईश्वरीय संकेत मिला करता है जिससे आपको भी इन्कार न होगा क्योंकि ईश्वरीय संकेत की जरूरत तो आप लोग भी मानते हैं बल्कि आप स्वयं अपने आपको किताब वालों के रूप में जानते हैं । इसी उसूल से नुबुवत की जरूरत मालूम होती है ।
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आपत्ति नंबर 2 से 160  इधर देखें 
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